मासूम सी गुड़िया -लेखनी प्रतियोगिता -20-Apr-2022
मैं थी एक मासूम-सी गुड़िया
नौ माह माँ की कोख में पली
आँखों में बसे थे अनेक सपने
आऊँगी बाहर मिलेंगे अपने।
मासूमियत का पिटारा लेकर
भीतरी दुनिया को अलविदा कर
माँ के गर्भ से पकड़ी बाहरी डगर
खो दी उस पल अपनी माँ मगर।
प्रभु को शायद माँ लगी प्यारी
मेरी मासूम माँ उसने उठा ली।
थी मैं उनकी छोटी नन्ही परी
लोगों को शायद मैं थी अखरी।
मेरा मासूम चेहरा पिता ने न देखा
मनहूस कह किया मुझे अनदेखा
कोई बोला कैसी करमजली आई
एक तो लड़की और माँ को खाई।
लड़की बोझ बनेगी होगी बर्बादी
दूजे घर को भी खाएगी कर शादी
किसी पत्थर दिल ने जुल्म किया
मुझ मासूम को कूड़े में फ़ेंक दिया।
सड़क बन गयीं मेरा घर-परिवार
कचरे के ढेर में बसा मेरा संसार।
समझ भी न पाई अपनों का प्यार
जूठन खाकर बचपन दिया तार।
कभी लोगों के घरों में मांजे बर्तन
कभी छिपाती रही भेड़ियों से तन
कभी लोगों ने कराया झाड़ू-पोछा
पेट पाल रही कभी कुछ न सोचा।
एक दिन देखा एक बच्ची गोद में
पिता संग आनंदित रही विनोद में
देखा जो उसका मासूम-सा चेहरा
आंसूओं पर लगा सकी न पहरा।
सोचा क्यों अपनों ने मुझे दूर किया
मासूम बचपन को चकनाचूर किया
मैंने पैदा हो क्या कोई कसूर किया
मुझे विधाता ने न प्यार का नूर दिया।
क्या लड़की होना है इतना बड़ा पाप
सोच कर भी मेरी रूह जाती है काँप
कैसी सोच को समाज ने है अपनाया
अपने खून को भी कर देते हैं पराया।
परमात्मा एक विनती मेरी सुन लो
हर लड़की में तुम ऐसा गुण भर दो
बेटा-बेटी का फर्क सदा मिट जाए
मासूम कोई सड़क पर न नज़र पाए।
डॉ. अर्पिता अग्रवाल
Dr. Arpita Agrawal
22-Apr-2022 06:04 AM
आप सभी का हार्दिक आभार मेरी रचना को पढ़ने, पसंद करने व प्रोत्साहित करने हेतु 😊😊😊
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Reyaan
22-Apr-2022 03:51 AM
Very nice
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Shrishti pandey
21-Apr-2022 11:22 PM
Very nice
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